Manoj Bajpayee और जिम सरभ स्टारर फिल्म Inspector Zende 5 सितंबर को नेटफ्लिक्स पर रिलीज हो चुकी है। यह क्राइम थ्रिलर एक सच्ची घटना पर आधारित है, जिसमें कुख्यात अपराधी बिकिनी किलर चार्ल्स सोभराज और इंस्पेक्टर मधुकर बी झेंडे के बीच हुई असली जंग को पर्दे पर जीवंत रूप में दिखाया गया है।
मेकर्स ने कहानी में थोड़ी कॉमेडी का तड़का भी डालने की कोशिश की है, जिससे फिल्म हल्की-फुल्की और मनोरंजक बनी रहती है। हालांकि, कई जगहों पर फिल्म की रफ्तार धीमी लगती है और कुछ सीन दोहराव वाले महसूस होते हैं। इसके अलावा, कहानी में थोड़ी पूर्वानुमानिता होने के कारण सस्पेंस का असर कुछ कम हो जाता है।
फिल्म के किरदार और परफॉर्मेंस इसे खड़ा रखते हैं। Manoj Bajpayee ने Inspector Zende की भूमिका में शानदार प्रदर्शन किया है, वहीं जिम सरभ ने चार्ल्स सोभराज का किरदार स्टाइलिश और खतरनाक अंदाज में पेश किया है।
कुल मिलाकर, Inspector Zende उन दर्शकों के लिए अच्छी है, जो थ्रिल और हल्की कॉमेडी के साथ सच्ची अपराध कहानी देखना पसंद करते हैं। हालांकि, यदि आप एक डायनेमिक और तेज़ कहानी की उम्मीद रखते हैं, तो फिल्म थोड़ी धीमी और दोहराव वाली लग सकती है।
Inspector Zende: वास्तविक घटना पर आधारित क्राइम थ्रिलर
डिजिटल प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म Inspector Zende की शुरुआत में ही वॉइस ओवर के जरिए दर्शकों को बता दिया जाता है कि यह वास्तविक घटनाओं से प्रेरित फिल्म है। फिल्म का केंद्र बिंदु हैं मुंबई पुलिस के इंस्पेक्टर मधुकर बी झेंडे, जिन्होंने अपने कार्यकाल में दो बार कुख्यात अपराधी चार्ल्स सोभराज को गिरफ्तार किया।
पहली गिरफ्तारी 1971 में मुंबई में हुई थी, जबकि दूसरी बार 1986 में गोवा में चार्ल्स को पकड़ने का साहसिक प्रयास उन्होंने किया। फिल्म में इन घटनाओं को रोमांचक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें पुलिस और अपराधी के बीच की बिल्ली-चूहे की दौड़ साफ दिखाई देती है।
मेकर्स ने कहानी में थ्रिल और सस्पेंस के साथ-साथ हल्का-फुल्का ह्यूमर भी जोड़ने की कोशिश की है। यह दर्शकों को मनोरंजन के साथ-साथ उस दौर की वास्तविक परिस्थितियों और पुलिस की रणनीति से भी रूबरू कराती है। Inspector Zende के साहस और चालाकी को स्क्रीन पर जीवंत तरीके से दिखाया गया है।
फिल्म में दर्शाया गया है कि कैसे झेंडे ने अपने धैर्य और अनुभव का इस्तेमाल कर चार्ल्स जैसी चालाक और खतरनाक अपराधी को पकड़ने में सफलता पाई। इसके साथ ही कहानी दर्शकों को यह भी दिखाती है कि अपराध और न्याय के बीच की जंग कितनी चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरी होती है
Inspector Zende की कहानी
फिल्म Inspector Zende की कहानी साल 1986 से शुरू होती है। मुंबई पुलिस में तैनात Inspector Zende (Manoj Bajpayee) को पता चलता है कि इंटरपोल का मोस्ट वांटेड अपराधी कार्ल भोजराज (जिम सरभ) दिल्ली के तिहाड़ जेल से फरार हो गया है। दिलचस्प बात यह है कि साल 1971 में झेंडे ने ही इसे पहली बार गिरफ्तार किया था। इसलिए इस बार भी उसे जिम्मेदारी दी जाती है क्योंकि कार्ल दिल्ली से भागकर मुंबई की ओर आ रहा है।
यहीं से शुरू होता है चूहे-बिल्ली और सांप-नेवले का खेल, जिसमें अपराधी और पुलिस अफसर के बीच सस्पेंस और रणनीति की लड़ाई दिखाई जाती है। इन 15 वर्षों में कार्ल और भी खतरनाक हो गया है; उस पर अब 32 हत्याओं और चार देशों की जेल से फरार होने का इल्जाम है।
झेंडे को मुंबई से लेकर गोवा तक कार्ल को पकड़ने के लिए सीमित संसाधनों, बजट और छोटी टीम के साथ काम करना पड़ता है। फिल्म में दर्शाया गया है कि कैसे झेंडे अपनी बुद्धिमानी, धैर्य और अनुभव का इस्तेमाल करके इस खतरनाक अपराधी को पकड़ने की कोशिश करता है।
कहानी दर्शकों को उस दौर के पुलिस कामकाज, रणनीति और साहस के साथ-साथ अपराधियों की चालाकी से भी रूबरू कराती है। फिल्म में इस सच्ची घटना को थ्रिल, ड्रामा और हल्के कॉमेडी टच के साथ प्रस्तुत किया गया है, जिससे दर्शक अंत तक स्क्रीन से जुड़े रहते हैं।
Inspector Zende रिव्यू: चार्ल्स शोभराज फिल्म में मामूली चोर बनकर नजर आए
हिंदी और मराठी फिल्मों के अनुभवी अभिनेता चिन्मय डी मंडलेकर की बतौर निर्देशक यह पहली फिल्म है, लेकिन तकनीकी रूप से उन्होंने फ्रेम और दृश्य को अच्छे तरीके से बांधा है। हालांकि, फिल्म की कहानी लंबी और धीमी है। कॉमेडी के पंच अक्सर तब समझ आते हैं जब सीन पहले ही आगे निकल चुका होता है। साल 1986 की मुंबई केवल बोतल में दूध पहुंचाने और लैंडलाइन वाले सीन में नजर आती है।
फिल्म में कुख्यात अपराधी चार्ल्स शोभराज को अंत तक केवल मामूली चोर के रूप में पेश किया गया है। जबकि वास्तविक जीवन में वह बेहद खतरनाक था। निर्देशक ने झेंडे और कार्ल दोनों पात्रों को मजबूत बनाने की कोशिश की है, लेकिन कॉमेडी के तड़के ने उन्हें थोड़ी कमजोर बना दिया।
जब फिल्म की शुरुआत में कहा गया कि यह वास्तविक घटना पर आधारित है और मधुकर झेंडे का नाम असली है, तब बिकिनी किलर के नाम से मशहूर चार्ल्स को स्विमसूट किलर कार्ल भोजराज में बदलना कुछ हद तक अनावश्यक लगता है। फिल्म चूहे-बिल्ली और सांप-नेवले के खेल की तरह शुरू होती है, जो इसे देखने योग्य बनाती है।
गोवा में कार्ल को पकड़ने वाले दृश्य रोमांचक होने के बजाय मजेदार हैं, जैसे डांस फ्लोर पर झेंडे उसे डांस करते हुए पकड़ता है। इसके अलावा, विशाल सिन्हा की सिनेमैटोग्राफी फिल्म को स्टाइलिश बनाती है, जबकि बैकग्राउंड स्कोर धीमे सीन में गति लाने में मदद करता है। अंत में वास्तविक मधुकर झेंडे को देखकर दर्शकों को संतोषजनक अनुभव मिलता है।
फिल्म की ताकत इसकी अभिनय क्षमता और स्टाइलिश प्रेजेंटेशन है, लेकिन कहानी की धीमी गति और चार्ल्स के किरदार का कमजोर चित्रण इसे पूरी तरह प्रभावशाली नहीं बनने देता।
Manoj Bajpayee के कंधों पर फिल्म का पूरा भार
फिल्म Inspector Zende में पूरी कहानी और थ्रिल Manoj Bajpayee के कंधों पर टिकी हुई है। हर फ्रेम में वह कमजोर स्क्रीनप्ले और लंबी कहानी को अपने अनुभव और दमदार अभिनय से संभालते हैं। उनका अंदाज और द फैमिली मैन वेब सीरीज वाले जोन दर्शकों को झेंडे के किरदार में पूरी तरह विश्वास दिलाता है।
वहीं, कार्ल की भूमिका में जिम सरभ अपेक्षित प्रभाव नहीं डाल पाते। उनका फ्रेंच उच्चारण और खतरनाक अपराधी का किरदार दर्शकों को पूरी तरह डर या सस्पेंस नहीं दे पाता। डीजीपी पुरंदरे के रोल में सचिन खेड़ेकर स्क्रिप्ट के दायरे में ही सीमित रहते हैं, लेकिन अपनी भूमिका को संतोषजनक ढंग से निभाते हैं।
गिरीजा ओक को ज्यादा स्क्रीन स्पेस नहीं मिला है, लेकिन जितना समय मिला है, उसमें उनका प्रदर्शन प्रभावशाली है। झेंडे के साथी पाटिल के रोल में भालचंद्र कदम का अभिनय सहज और आकर्षक लगता है। कुल मिलाकर, फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसकी कास्टिंग और Manoj Bajpayee की एक्टिंग है, जबकि कुछ अन्य किरदार अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ पाते।
फिल्म की कहानी धीमी और कुछ जगहों पर दोहराव वाली है, लेकिन मनोज के अभिनय और स्क्रीन प्रजेंस के कारण यह देखने योग्य बनी रहती है। दर्शक उनके किरदार में पूरी तरह डूबकर फिल्म का आनंद ले सकते हैं।