फिल्म रिव्यू: मनोज बाजपेयी का दमदार अभिनय बना फिल्म की जान
निर्देशक: चिन्मय मांडलेकर
कलाकार: मनोज बाजपेयी, जिम सर्भ, सचिन खेड़ेकर, गिरीजा ओक, भालचंद्र कदम
रेटिंग: ⭐⭐⭐ (3/5)
अगर ट्रॉय की हेलेन को लेकर कहा जाता है कि उसके चेहरे ने हजार जहाजों को समुद्र में उतारा था, तो वही बात बॉलीवुड में मनोज बाजपेयी पर सटीक बैठती है। उनका अभिनय ऐसा है कि दर्शक किसी भी असंभव कहानी को सच मानने पर मजबूर हो जाते हैं।
मनोज बाजपेयी के पास बस एक स्क्रिप्ट होनी चाहिए, फिर चाहे कहानी कितनी भी असामान्य क्यों न हो। वो चाहें तो आपको यह भी विश्वास दिला सकते हैं कि मोहल्ले की पान की दुकान किसी एलियन द्वारा चलाई जा रही है—और दर्शक बिना सोचे-समझे सबसे पहले वहां लाइन में खड़े हो जाएंगे।
चार्ल्स सोभराज की तलाश में इंस्पेक्टर ज़ेंडे
फिल्म में इंस्पेक्टर ज़ेंडे का किरदार कहीं न कहीं मनोज बाजपेयी के मशहूर रोल श्रीकांत तिवारी (The Family Man) की याद दिलाता है। दोनों का अंदाज़ और स्क्रीन प्रेज़ेंस काफी हद तक मिलता-जुलता लगता है।
कहानी का केंद्र है ज़ेंडे का मिशन—सीरियल किलर कार्ल भोजराज (असल में चार्ल्स सोभराज से प्रेरित किरदार) को पकड़ना। यह पीछा गंभीरता के बजाय एक कॉमिक टच के साथ दिखाया गया है, जिससे कहानी मनोरंजक अंदाज़ में आगे बढ़ती है।
सांप-नेवले जैसी टक्कर की कहानी
लेखक और निर्देशक चिन्मय मांडलेकर ने फिल्म को ठीक उसी अंदाज़ में गढ़ा है, जैसे सांप और नेवले की लड़ाई। खुद इंस्पेक्टर ज़ेंडे भी इस जंग को ऐसा ही मानते हैं।
कहानी की जड़ वास्तविक घटनाओं में है। यह फिल्म पुलिस अफसर मधुकर ज़ेंडे पर आधारित है, जिन्होंने कुख्यात अपराधी चार्ल्स सोभराज को एक बार नहीं, बल्कि दो बार गिरफ्तार किया था। उनके इस साहस और रणनीति ने मुंबई पुलिस के इतिहास में एक खास जगह बनाई।
निर्देशक ने स्क्रीनप्ले को इस तरह पेश किया है कि दर्शक रोमांच और ह्यूमर दोनों का अनुभव कर सकें। असली घटनाओं पर आधारित होने के बावजूद फिल्म सिर्फ एक क्राइम थ्रिलर नहीं लगती, बल्कि इसमें एंटरटेनमेंट और सस्पेंस का भी पूरा तड़का है। यही बैलेंस कहानी को बड़े पर्दे पर और भी आकर्षक बना देता है।
फिल्मी अतिशयोक्ति या सच्ची घटना?
फिल्म देखते समय कई सीन ऐसे लगते हैं मानो उन्हें ड्रामाई असर के लिए बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया हो, लेकिन हैरानी की बात यह है कि उनमें से कई वाकई सच साबित होते हैं।
उदाहरण के लिए, जब चार्ल्स सोभराज को गोवा से मुंबई लाया जा रहा था, तो इंस्पेक्टर ज़ेंडे ने सुरक्षा के लिए दो पुलिसवालों को ट्रेन में सीधे उसके ऊपर बैठा दिया था। यह घटना फिल्म में भी दिखाई गई है और हकीकत में भी घटी थी।
हास्य और अपराध का अनोखा मिश्रण
फिल्म का ट्रीटमेंट हल्का-फुल्का और मनोरंजक रखा गया है। इंस्पेक्टर ज़ेंडे यानी मनोज बाजपेयी के इर्द-गिर्द घूमती पुलिस टीम भी उतनी ही अनोखी और मज़ेदार दिखाई गई है, जो कहानी में कॉमिक टच जोड़ती है।
हालांकि, चार्ल्स सोभराज के खतरनाक अपराध—जिनके चलते उसे बिकिनी किलर कहा गया—कथानक का अहम हिस्सा बने रहते हैं, लेकिन निर्देशक ने फिल्म का फोकस ह्यूमर और व्यंग्य पर ज्यादा रखा है। यही कारण है कि गहरी क्राइम स्टोरी होने के बावजूद फिल्म दर्शकों को हल्के-फुल्के अंदाज़ में एंटरटेन करती है।
फिल्म की कमजोर कड़ी
फिल्म का सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू इसकी धीमी रफ्तार है। लगातार चलने वाला पीछा शुरू में रोमांचक लगता है, लेकिन कुछ देर बाद वही सीक्वेंस दोहराव जैसा महसूस होने लगता है। दर्शक सोचने लगते हैं कि अब आगे क्या नया होगा।
इसके अलावा, कहानी की पूर्वानुमानिता (Predictability) भी मज़ा थोड़ा कम कर देती है। दर्शक कई बार घटनाओं का अंदाज़ा पहले ही लगा लेते हैं, जिससे फिल्म का रोमांच और सस्पेंस फीका पड़ने लगता है। यही वजह है कि फिल्म की ऊर्जा बीच-बीच में थोड़ी कमजोर नज़र आती है।
इंस्पेक्टर ज़ेंडे कई हिस्सों में मनोरंजक है, खासकर मनोज बाजपेयी की मौजूदगी और बाकी कलाकारों की वजह से। लेकिन दोहराव और धीमी गति इसे उतनी ऊंचाई तक नहीं ले जाते, जितनी इसकी कहानी ले जा सकती थी। 3 स्टार वाली यह फिल्म एक हल्की-फुल्की थ्रिलर है, जिसमें ह्यूमर की अच्छी खुराक है। इसकी सबसे बड़ी ताकत इसके कलाकार हैं, कहानी नहीं।